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अंग्रेजी अनुवाद यहां पर
कुछ समय से मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि धर्म एवं योग की उचित परिभाषा क्या है। इनका क्या अर्थ है। निस्संदेह धर्म योग एवं कर्म भारतीय आध्यात्म प्रणाली के तीन विशाल स्तम्भ हैं।
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कुछ समय से मेरे मन में यह प्रश्न उठ रहा था कि धर्म एवं योग की उचित परिभाषा क्या है। इनका क्या अर्थ है। निस्संदेह धर्म योग एवं कर्म भारतीय आध्यात्म प्रणाली के तीन विशाल स्तम्भ हैं।
हालाँकि कर्म को संपूर्ण सृष्टि के कर्म चक्र के सन्दर्भ में हमारे द्वारा किये गए क्रियाओं के रूप में समझ पान उतना कठिन नहीं है। परन्तु धर्म एवं योग की न केवल परिभाषाएँ अपितु उनके अर्थ भी विभिन्न पाये जाते हैं। मेरे अपने अनुसन्धान विश्लेषण एवं चिंतन से मैंने इन दो मूल्यों को समझने का प्रयास किया है। मेरा विश्वास है कि निम्नलिखित विवरण अन्य कई परिभाषाओं से सामंजस्य रखेगा।
योग
संस्कृत में योग का अर्थ होता है जोड़ना या मिलाना। इस शब्द का मूल 'युज् ' है जिसका अर्थ है जोड़ना। योग को गणित में addition के अर्थ में भी प्रयोग में लाते हैं। परन्तु अधिकतर इसे जोड़ने या मिलाने के अर्थ में ही इस्तेमाल किया जाता है। अंग्रेजी में yoke शब्द का मूल भी संस्कृत 'युज् ' ही है। योग स्वयं के अस्तित्वा को सम्पूर्ण सृष्टि से मिलाने का एक अभ्यास व एक साधन है।
एक सरल सा उदहारण प्रस्तुत करता हूँ। हमारा व्यक्तिगत जीवन कई इच्छाओं से भरा हुआ है। अधिकांश हमारे विचार कथन एवं क्रियाएं हमारी इन इच्छाओं की पूर्ती की ओर निर्देशित रहते हैं। परन्तु कदाचित हम अपनी इन व्यक्तिगत इच्छाओं को अपने परिवार समाज मित्रों गाँव नगर देश अथवा पर्यावरण के हित के लिए पूरा न करने का निर्णय लेते हैं। ऐसे कचित क्षणों में ही योग का बोध छुपा हुआ है।
उदहारण के लिए जब भी हम अपने व्यक्तिगत हितों को अपने परिवार के हित के लिए त्याग देते हैं तो हम निम्नलिखित दो विचारों का अनुसरण करते हैं।
- हम स्वयं को अपने से एक बड़ी इकाई का अंग मानते हैं। इस उदहारण में वह इकाई हमारा परिवार होगा।
- हम यह समझते हैं कि अपने हितों की अपेक्षा इस बड़ी इकाई के हितों की रक्षा में अधिक लाभ है।
ऐसा करने से हम स्वयं को अपने से एक बड़ी इकाई से जोड़ते हैं और अपने व्यक्तिगत हितों को अपने से बड़ी इकाई के हितों के सन्दर्भ में देखते हैं।
योग के अभ्यास के द्वारा व्यक्ति धीरे धीरे स्वयं को अपने से बड़ी से बड़ी इकाइयों से जोड़ने लगता है। अंत में व्यक्ति जब अपने अस्तित्व को संपूर्ण सृष्टि के सन्दर्भ से जोड़ लेता है तब उसका प्रत्येक विचार शब्द एवं क्रिया संपूर्ण सृष्टि के हितों की रक्षा में लग जाता है। ऐसा करना सरल नहीं है। इसी लिए योग को अभ्यास अथवा साधना कहा जाता है। यह एक प्रक्रिया है जिसके फलस्वरूप व्यक्ति संपूर्ण सृष्टि से ऐक्य प्राप्त कर लेता है।
धर्म
धर्म शब्द का मूल संस्कृत में 'धृ' है जिसका अर्थ पकड़ना अथवा संरक्षण सम्भालना पोषण आदि के रूप में है। इसी मूल से 'धरती' 'धारणा' आदि शब्दों की उत्पत्ति भी हुई है। यही अर्थ माने तो यह जानना अनिवार्य है कि धर्म से हम किसके संरक्षण की बात कर रहे हैं।
धर्म सम्मिलित रूप में हमारे वे सारे शब्द क्रियाएं एवं कर्तव्य हैं जो प्राकृतिक व्यवस्था बनाए रखते हैं। 'व्यवस्था' इस शब्द को हमने ध्यानपूर्वक समझना है। 'व्यवस्था' को अधिकतर लोग अच्छे-बुरे उचित-अनुचित के मानवकृत संकल्पनाओं की सीमाओं में देखते हैं। यह गलत है। धर्म के सन्दर्भ में व्यवस्था को मानवीय संकल्पनाओं से हटकर एक प्राकृतिक रूप में देखना चाहिए।
परन्तु यह प्राकृतिक व्यवस्था है क्या? क्या हम अब भी मानवकृत अच्छे-बुरे बातों की चर्चा नहीं कर रहे?
इसका उत्तर हमें योग के अभ्यास से मिलता है। जब हम स्वयं के अस्तित्व को संपूर्ण सृष्टि के हितों से जोड़ लेते हैं तब जिन विचारों शब्दों अथवा क्रियाओं की उत्पत्ति होती वह धर्माचरण कहलाता है। और इन विचारों शब्दों एवं क्रियाओं को सम्मिलित रूप में धर्म कहा जाता है।
उदाहरणतः यदि हमारी मछली खाने की व्यक्तिगत इच्छा हमें समुद्र से अधिक से अधिक मछलियां पकड़ने के लिए प्रोत्साहित करती है तो इस से समुद्री पारिस्थितिकी पर दुष्प्रभाव पड़ सकता है। परन्तु जैसे ही हम स्वयं के हितों को पर्यावरण के हितों से जोड़ लेते हैं तो वैसे ही हम पर्यावरण संरक्षण को ध्यान में रखते हुए अपने आचरण और अपनी आकांक्षाओं पर नियंत्रण रखने लगते हैं। योग प्रक्रिया के इस एक कदम से हम धर्म के अनुकूल जीवन की ओर एक कदम बढ़ा लेते हैं।
सारांश यही है कि धर्म योग की अभिव्यक्ति है। योग एक अभ्यास है तो धर्म उसका परिणाम है। धर्माचरण व्यक्ति या अपने योग अभ्यास से सीख सकता है अथवा किसी योगी के शब्दों विचारों एवं क्रियाओं का अनुसरण कर के।
हम जितना धर्म को समझने लगेंगे उतना ही हमें अधर्म भी समझ आएगा। धर्म एवं अधर्म प्रकाश और अंधकार की भांति हैं। जहां प्रकाश है वहां अंधकार नहीं हो सकता और अंधकार होने के लिए प्रकाश को पूरी तरह मिटाना ही पड़ेगा। एक का अस्तित्व दुसरे के अस्तित्व की समाप्ति पर ही टिका हुआ है। अर्थात् धर्म को जीवित रखने के लिए अधर्म का विनाश अनिवार्य है। अधर्म का नाश भी धर्म है।
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